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एकादश समुल्लास खण्ड-18

(प्रश्न) आप सब का खण्डन करते ही आते हो परन्तु अपने-अपने धर्म में सब अच्छे हैं। खण्डन किसी का न करना चाहिए। जो करते हो तो आप इन से विशेष क्या बतलाते हो। जो बतलाते हो तो क्या आप से अधिक वा तुल्य कोई पुरुष न था? और न है? ऐसा अभिमान करना आप को उचित नहीं, क्योंकि परमात्मा की सृष्टि में एक-एक से अधिक, तुल्य और न्यून बहुत हैं। किसी को घमण्ड करना उचित नहीं?

(उत्तर) धर्म सब का एक होता है वा अनेक? जो कहो अनेक होते हैं तो एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं वा अविरुद्ध? जो कहो कि विरुद्ध होते हैं तो एक के विना दूसरा धर्म नहीं हो सकता और जो कहो कि अविरुद्ध हैं तो पृथक्-पृथक् होना व्यर्थ है। इसलिए धर्म और अधर्म एक ही हैं; अनेक नहीं। यही हम विशेष कहते हैं कि जैसे सब सम्प्रदायों के उपदेशकों को कोई राजा इकट्ठा करे तो एक सहस्र से कम नहीं होंगे परन्तु इन का मुख्य भाग देखो तो पुरानी, किरानी, जैनी और कुरानी चार ही हैं। क्योंकि इन चारों में सब सम्प्रदाय आ जाते हैं। कोई राजा उन की सभा करके वा कोई जिज्ञासु होकर प्रथम वाममार्गी से पूछे-हे महाराज! मैंने आज तक न कोई गुरु और न किसी धर्म का ग्रहण किया है। कहिये ! सब धर्मों में से उत्तम धर्म किस का है? जिस को मैं ग्रहण करूं?

(वाममार्गी) हमारा है।

(जिज्ञासु) ये नौ सौ निन्न्यानवे कैसे हैं?

(वाममार्गी) सब झूठे और नरकगामी हैं क्योंकि ‘कौलात्परतरं नहि’। इस वचन के प्रमाण से हमारे धर्म से परे कोई धर्म नहीं है।

(जिज्ञासु) आप का क्या धर्म है?

(वाममार्गी) भगवती का मानना, मद्य-मांसादि पंच मकारों का सेवन और रुद्रयामल आदि चौसठ तन्त्रें का मानना इत्यादि, जो तू मुक्ति की इच्छा करता है तो हमारा चेला हो जा।

(जिज्ञासु) अच्छा! परन्तु और महात्माओं का भी दर्शन कर पूछपाछ आऊँगा। पश्चात् जिस में मेरी श्रद्धा और प्रीति होगी उस का चेला हो जाऊँगा।

(वाममार्गी) अरे! क्यों भ्रान्ति में पड़ा है। ये लोग तुझ को बहका कर अपने जाल में फंसा देंगे। किसी के पास मत जावे। हमारे ही शरणागत हो जा नहीं तो पछतावेगा। देख! हमारे मत में भोग और मोक्ष दोनों हैं।

(जिज्ञासु) अच्छा देख तो आऊँ। आगे चलकर शैव के पास जाके पूछा तो ऐसा ही उत्तर उस ने दिया। इतना विशेष कहा कि विना शिव, रुद्राक्ष, भस्म- धारण और लिंगार्चन के मुक्ति कभी नहीं होती। वह उसको छोड़ नवीन वेदान्ती जी के पास गया।

(जिज्ञासु) कहो महाराज! आप का धर्म क्या है?

(वेदान्ती) हम धर्माऽधर्म कुछ भी नहीं मानते। हम साक्षात् ब्रह्म हैं। हम में धर्माऽधर्म कहां है? यह जगत् सब मिथ्या है। और जो ज्ञानी शुद्ध चेतन हुआ चाहै तो अपने को ब्रह्म मान; जीवभाव को छोड़; नित्यमुक्त हो जायेगा।

(जिज्ञासु) जो तुम ब्रह्म नित्यमुक्त हो तो ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव तुम में क्यों नहीं? और शरीर में क्यों बंधे हो?

(वेदान्ती) तुझ को शरीर दीखते हैं इसी से तू भ्रान्त है। हम को कुछ नहीं दीखता; विना ब्रह्म के।

(जिज्ञासु) तुम देखने वाले कौन और किसको देखते हो?

(वेदान्ती) देखनेवाला ब्रह्म और ब्रह्म को ब्रह्म देखता है।

(जिज्ञासु) क्या दो ब्रह्म हैं?

(वेदान्ती) नहीं। अपने आप को देखता है।

(जिज्ञासु) क्या कोई अपने कन्धे पर आप चढ़ सकता है? तुम्हारी बात कुछ नहीं केवल पागलपने की है। उस ने आगे चलकर जैनियों के पास जाकर पूछा। उन्होंने भी वैसा ही कहा परन्तु इतना विशेष कहा कि ‘जिणधर्म्म’ के विना सब धर्म खोटा। जगत् का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं। जगत् अनादि काल से जैसा का वैसा बना है और बना रहेगा। आ तू हमारा चेला हो जा। क्योंकि हम सम्यक्त्वी अर्थात् सब प्रकार से अच्छे हैं। उत्तम बातों को मानते हैं। जैन मार्ग से भिन्न सब मिथ्यात्वी हैं। आगे चल के ईसाई से पूछा। उसने वाममार्गी के तुल्य सब जवाब सवाल किये। इतना विशेष बतलाया ‘सब मनुष्य पापी हैं, अपने सामर्थ्य से पाप नहीं छूटता। विना ईसा पर विश्वास के पवित्र होकर मुक्ति को नहीं पा सकता। ईसा ने सब के प्रायश्चित्त के लिए अपने प्राण देकर दया प्रकाशित की है। तू हमारा ही चेला हो जा।’

जिज्ञासु सुनकर मौलवी साहब के पास गया। उन से भी ऐसे ही जवाब सवाल हुए। इतना विशेष कहा-‘लाशरीक’ खुदा उस के पैगम्बर और कुरानशरीफ के विना माने कोई निजात नहीं पा सकता। जो इस मजहब को नहीं मानता वह दोजखी और काफिर है वाजिबुल्कत्ल है। जिज्ञासु सुनकर वैष्णव के पास गया। वैसा ही संवाद हुआ। इतना विशेष कहा कि ‘हमारे तिलक छापे देखकर यमराज डरता है।’ जिज्ञासु ने मन में समझा कि जब मच्छर, मक्खी, पुलिस के सिपाही, चोर, डाकू और शत्रु नहीं डरते तो यमराज के गण क्यों डरेंगे?

फिर आगे चला तो सब मतवालों ने अपने-अपने को सच्चा कहा। कोई हमारा कबीर सच्चा, कोई नानक, कोई दादू, कोई वल्लभ, कोई सहजानन्द, कोई माध्व आदि को बड़ा और अवतार बतलाते सुना। सहस्र से पूछ उन के परस्पर एक दूसरे का विरोध देख, विशेष निश्चय किया कि इन में कोई गुरु करने योग्य नहीं। क्योंकि एक-एक की झूठ में नौ सौ निन्न्यानवे गवाह हो गये। जैसे झूठे दुकानदार वा वेश्या और भडुवा आदि अपनी-अपनी वस्तु की बड़ाई दूसरे की बुराई करते हैं वैसे ही ये हैं। ऐसा जान-

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ।
समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।१।।

तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय ।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।।२।।

उपनिषद्

उस सत्य के विज्ञानार्थ वह समित्पाणि अर्थात् हाथ जोड़ अरिक्तहस्त होकर वेदवित् ब्रह्मनिष्ठ परमात्मा को जाननेहारे गुरु के पास जावे। इन पाखण्डियों के जाल में न गिरे।।१।।

जब ऐसा जिज्ञासु विद्वान् के पास जाय, उस शान्तचित्त जितेन्द्रिय समीप प्राप्त जिज्ञासु को यथार्थ ब्रह्मविद्या परमात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव का उपदेश करे और जिस-जिस साधन से वह श्रोता धर्मार्थ, काम, मोक्ष और परमात्मा को जान सके वैसी शिक्षा किया करे।।२।।

जब वह ऐसे पुरुष के पास जाकर बोला कि महाराज अब इन सम्प्रदायों के बखेड़ों से मेरा चित्त भ्रान्त हो गया क्योंकि जो मैं इन में से किसी एक का चेला होऊंगा तो नौ सौ निन्न्यानवे से विरोधी होना पड़ेगा। जिस के नौ सौ निन्न्यानवे शत्रु और एक मित्र है उस को सुख कभी नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझ को उपदेश कीजिये जिस को मैं ग्रहण करूं।

आप्तविद्वान्-ये सब मत अविद्याजन्य विद्याविरोधी हैं। मूर्ख, पामर और जंगली मनुष्य को बहकाकर अपने जाल में फंसा के अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वे विचारे अपने मनुष्यजन्म के फल से रहित होकर अपना मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाते हैं। देख! जिस बात में ये सहस्र एकमत हों वह वेदमत ग्राह्य है और जिस में परस्पर विरोध हो वह कल्पित, झूठा, अधर्म, अग्राह्य है।

(जिज्ञासु) इसकी परीक्षा कैसे हो?

(आप्त) तू जाकर इन-इन बातों को पूछ। सब की एक सम्मति हो जायगी। तब वह उन सहस्र की मण्डली के बीच में खड़ा होकर बोला कि सुनो सब लोगो! सत्यभाषण में धर्म है वा मिथ्या में? सब एक स्वर होकर बोले कि सत्यभाषण में धर्म और असत्यभाषण में अधर्म है। वैसे ही विद्या पढ़ने, ब्रह्मचर्य करने, पूर्ण युवावस्था में विवाह, सत्संग, पुरुषार्थ, सत्य व्यवहार, आदि में धर्म और अविद्या ग्रहण, ब्रह्मचर्य न करने, व्यभिचार करने, कुसंग, आलस्य, असत्य व्यवहार, छल, कपट, हिसा, परहानि करने आदि कर्म्मों में? सब ने एक मत होके कहा कि विद्यादि के ग्रहण में धर्म और अविद्यादि के ग्रहण में अधर्म। तब जिज्ञासु ने सब से कहा कि तुम इसी प्रकार सब जने एकमत हो सत्य- धर्म की उन्नति और मिथ्यामार्ग की हानि क्यों नहीं करते हो? वे सब बोले-जो हम ऐसा करें तो हम को कौन पूछे? हमारे चेले हमारी आज्ञा में न रहैं। जीविका नष्ट हो जाय। फिर जो हम आनन्द कर रहे हैं सो सब हाथ से जाय। इसलिये हम जानते हैं तो भी अपने-अपने मत का उपदेश और आग्रह करते ही जाते हैं क्योंकि ‘रोटी खाइये शक्कर से और दुनिया ठगिये मक्कर से’ ऐसी बात है। देखो! संसार में सूधे सच्चे मनुष्य को कोई नहीं देता और न पूछता। जो कुछ ढोंगबाजी और धूर्त्तता करता है वही पदार्थ पाता है।

(जिज्ञासु) जो तुम ऐसा पाखण्ड चलाकर अन्य मनुष्यों को ठगते हो तुम को राजा दण्ड क्यों नहीं देता?

(मत वाले) हम ने राजा को भी अपना चेला बना लिया है। हम ने पक्का प्रबन्ध किया है; छूटेगा नहीं।

(जिज्ञासु) जब तुम छल से अन्य मतस्थ मनुष्यों को ठग उन की हानि करते हो परमेश्वर के सामने क्या उत्तर दोगे? और घोर नरक में पड़ोगे। थोडे़ जीवन के लिए इतना बड़ा अपराध करना क्यों नहीं छोड़ते?

(मत वाले) जब जैसा होगा तब देखा जाएगा। नरक और परमेश्वर का दण्ड जब होगा तब होगा अब तो आनन्द करते हैं। हम को प्रसन्नता से धनादि पदार्थ देते हैं कुछ बलात्कार से नहीं लेते फिर राजा दण्ड क्यों देवे?

(जिज्ञासु) जैसे कोई छोटे बालक को फुसला के धनादि पदार्थ हर लेता है जैसे उस को दण्ड मिलता है वैसे तुम को क्यों नहीं मिलता? क्योंकि-

अज्ञो भवति वै बाल पिता भवति मन्त्रद ।। -मनु०।।

जो ज्ञानरहित होता है वह बालक और जो ज्ञान का देने वाला है वह पिता और वृद्ध कहाता है। जो बुद्धिमान् विद्वान् है वह तो तुम्हारी बातों में नहीं फंसता किन्तु अज्ञानी लोग जो बालक के सदृश हैं उन को ठगने में तुम को राजदण्ड अवश्य होना चहिए।

(मत वाले) जब राजा प्रजा सब हमारे मत में हैं तो हम को दण्ड कौन देने वाला है? जब ऐसी व्यवस्था होगी तब इन बातों को छोड़ कर दूसरी व्यवस्था करेंगे।

(जिज्ञासु) जो तुम बैठे-बैठे व्यर्थ माल मारते हो सो विद्याभ्यास कर गृहस्थों के लड़के लड़कियों को पढ़ाओ तो तुम्हारा और गृहस्थों का कल्याण हो जाय।

(मत वाले) जब हम बाल्यावस्था से लेकर मरण तक के सुखों को छोड़ें; बाल्यावस्था से युवावस्था पर्यन्त विद्या पढ़ने में रहैं; पश्चात् पढ़ाने में और उपदेश करने में जन्म भर परिश्रम करें, हम को क्या प्रयोजन? हम को ऐसे ही लाखों रुपये मिल जाते हैं, चैन करते हैं। उस को क्यों छोड़ें?

(जिज्ञासु) इस का परिणाम तो बुरा है। देखो, तुम को बड़े रोग होते हैं। शीघ्र मर जाते हो। बुद्धिमानों में निन्दित होते हो। फिर भी क्यों नहीं समझते?

(मत वाले) अरे भाई!

टका धर्मष्टका कर्म टका हि परमं पदम् ।
यस्य गृहे टका नास्ति हा ! टकां टकटकायते।।१।।

आना अंशकला प्रोक्ता रूप्योऽसौ भगवान् स्वयम् ।
अतस्तं सर्व इच्छन्ति रूप्यं हि गुणवत्तमम्।।२।।

तू लड़का है संसार की बातें नहीं जानता। देख! टका के विना धर्म, टका के विना कर्म, टका के विना परमपद नहीं होता। जिस के घर में टका नहीं है वह हाय! टका-टका करता-करता उत्तम पदार्थों को टक-टक देखता रहता है कि हाय ! मेरे पास टका होता तो इस उत्तम पदार्थ को मैं भोगता।।१।। क्योंकि सब कोई सोलह कलायुक्त अदृश्य भगवान् का कथन श्रवण करते हैं सो तो नहीं दीखता, परन्तु सोलह आने और पैसे कौड़ीरूप अंश कलायुक्त जो रुपैया है वही साक्षात् भगवान् है। इसीलिए सब कोई रुपयों की खोज में लगे रहते हैं, क्योंकि सब काम रुपयों से सिद्ध होते हैं।।२।।

(जिज्ञासु) ठीक है। तुम्हारी भीतर की लीला बाहर आ गई। तुम ने जितना यह पाखण्ड खड़ा किया है वह सब अपने सुख के लिए किया है परन्तु इस में जगत् का नाश होता है। क्योंकि जैसा सत्योपदेश से संसार को लाभ पहुँचता है वैसी ही असत्योपदेश से हानि होती है। जब तुम को धन का ही प्रयोजन था तो नौकरी और व्यापारादि कर्म करके धन इकट्ठा क्यों नहीं कर लेते हो?

(मत वाले) उस में परिश्रम अधिक और हानि भी हो जाती है परन्तु इस हमारी लीला में हानि कभी नहीं होती किन्तु सर्वदा लाभ ही लाभ होता है। देखो! तुलसीदल डाल के चरणामृत दे, कण्ठी बांध देते, चेला मूड़ने से जन्मभर को पशुवत् हो जाता है। फिर चाहैं जैसे चलावें; चल सकता है।

(जिज्ञासु) ये लोग तुमको बहुत सा धन किस लिये देते हैं?

(मत वाले) धर्म, स्वर्ग और मुक्ति के अर्थ।

(जिज्ञासु) जब तुम ही मुक्त नहीं और न मुक्ति का स्वरूप वा साधन जानते हो तो तुम्हारी सेवा करने वालों को क्या मिलेगा?

(मत वाले) क्या इस लोक में मिलता है? नहीं, किन्तु मरकर पश्चात् परलोक में मिलता है। जितना ये लोग हम को देते हैं और सेवा करते हैं वह सब इन लोगों को परलोक में मिल जाता है।

(जिज्ञासु) इन को तो दिया हुआ मिल जाता है वा नहीं। तुम लेने वालों को क्या मिलेगा? नरक वा अन्य कुछ?

(मत वाले) हम भजन करा करते हैं। इस का सुख हम को मिलेगा।

(जिज्ञासु) तुम्हारा भजन तो टका ही के लिये है। वे सब टके यहीं पड़े रहेंगे और जिस मांसपिण्ड को यहां पालते हो वह भी भस्म होकर यहीं रह जायेगा। जो तुम परमेश्वर का भजन करते होते तो तुम्हारा आत्मा भी पवित्र होता।

(मत वाले) क्या हम अशुद्ध हैं?

(जिज्ञासु) भीतर के बड़े मैले हो। (मत वाले) तुमने कैसे जाना ?

(जिज्ञासु) तुम्हारे चाल चलन व्यवहार से। (मत वाले) महात्माओं का व्यवहार हाथी के दांत के समान होता है। जैसे हाथी के दांत खाने के भिन्न और दिखलाने के भिन्न होते हैं। वैसे ही भीतर से हम पवित्र हैं और बाहर से लीलामात्र करते हैं।

(जिज्ञासु) जो तुम भीतर से शुद्ध होते तो तुम्हारे बाहर के काम भी शुद्ध होते इसलिए भीतर भी मैले हो।

(मत वाले) हम चाहैं जैसे हों परन्तु हमारे चेले तो अच्छे हैं।

(जिज्ञासु) जैसे तुम गुरु हो वैसे तुम्हारे चेले भी होंगे।

(मत वाले) एक मत कभी नहीं हो सकता क्योंकि मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं।

(जिज्ञासु) जो बाल्यावस्था में एक सी शिक्षा हो, सत्यभाषणादि धर्म का ग्रहण और मिथ्याभाषणादि अधर्म का त्याग करें तो एकमत अवश्य हो जायें और दो मत अर्थात् धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं वे तो रहैं। परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख। जब सब विद्वान् एक सा उपदेश करें तो एकमत होने में कुछ भी विलम्ब न हो।

(मत वाले) आजकल कलियुग है सतयुग की बात मत चाहो।

(जिज्ञासु) कलियुग नाम काल का है। काल निष्क्रिय होने से कुछ धर्माधर्म के करने में साधक बाधक नहीं, किन्तु तुम ही कलियुग की मूर्त्तियां बन रहे हो। जो मनुष्य ही सत्ययुग कलियुग न हों तो कोई भी संसार में धर्मात्मा नहीं होता। ये सब संग के गुण दोष हैं; स्वाभाविक नहीं। इतना कहकर आप्त के पास गया। उन से कहा कि महाराज! तुम ने मेरा उद्धार किया, नहीं तो मैं भी किसी के जाल में फंसकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता। अब मैं भी इन पाखण्डियों का खण्डन और वेदोक्त सत्य मत का मण्डन किया करूँगा।

(आप्त) यही सब मनुष्यों का विशेष विद्वान् और संन्यासियों का काम है कि सब मनुष्यों को सत्य का मण्डन और असत्य खण्डन पढ़ा सुना के सत्योपदेश से उपकार पहुंचाना चाहिये।

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Is religion in satyabhashna or falsehood? Everyone said in unison that there is iniquity in religion and untruth in Satyabhasana. In the same way, reading religion, celibacy, marriage in full puberty, satsang, purushartha, true behavior, etc. religion and ignorance, non-celibacy, adultery, cussing, laziness, untrue behavior, deceit, treachery, disrespect, etc. In karmas? Everyone said in unison that religion in the eclipse of learning and iniquity in the eclipse of avidya.

 

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