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एकादश समुल्लास खण्ड-19

(प्रश्न) जो ब्रह्मचारी संन्यासी हैं वे तो ठीक हैं?

(उत्तर) ये आश्रम तो ठीक हैं परन्तु आजकल इन में भी बहुत सी गड़बड़ है। कितने ही नाम ब्रह्मचारी रखते हैं और झूठ-मूठ जटा बढ़ाकर सिद्धाई करते और जप पुरश्चरणादि में फंसे रहते हैं, विद्या पढ़ने का नाम नहीं लेते कि जिस हेतु से ब्रह्मचारी नाम होता है उस ब्रह्म अर्थात् वेद पढ़ने में परिश्रम कुछ भी नहीं करते। वे ब्रह्मचारी बकरी के गले के स्तन के सदृश निरर्थक हैं। और जो वैसे संन्यासी विद्याहीन, दण्ड कमण्डलु से भिक्षामात्र करते फिरते हैं, जो कुछ भी वेदमार्ग की उन्नति नहीं करते। छोटी अवस्था में संन्यास लेकर घूमा करते हैं और विद्याभ्यास को छोड़ देते हैं। ऐसे ब्रह्मचारी और संन्यासी इधर उधर जल, स्थल, पाषाणादि मूर्त्तियों का दर्शन, पूजन करते फिरते, विद्या जानकर भी मौन हो रहते। एकान्त देश में यथेष्ट खा पीकर सोते पड़े रहते हैं और ईर्ष्या द्वेष में फंसकर निन्दा कुचेष्टा करके निर्वाह करते । काषाय वस्त्र और दण्ड ग्रहणमात्र से अपने को कृतकृत्य समझते और सर्वोत्कृष्ट जानकर उत्तम काम नहीं करते, वैसे संन्यासी भी जगत् में व्यर्थ वास करते हैं। और जो सब जगत् का हित साधते हैं, वे ठीक हैं।

(प्रश्न) गिरी, पुरी, भारती आदि गुसाईं लोग तो अच्छे हैं? क्योंकि मण्डली बाँधकर इधर उधर घूमते हैं; सैकड़ों साधुओं को आनन्द कराते हैं और सर्वत्र अद्वैत मत का उपदेश करते हैं और कुछ-कुछ पढ़ते पढ़ाते भी हैं। इसलिये वे अच्छे होंगे।

(उत्तर) ये सब दश नाम पीछे से कल्पित किये गये हैं; सनातन नहीं। उन की मण्डलियाँ केवल भोजनार्थ हैं। बहुत से साधु भोजन ही के लिए मण्डलियों में रहते हैं। दम्भी भी हैं क्योंकि एक को महन्त बना सायंकाल में एक महन्त जो कि उन में प्रधान होता है वह गद्दी पर बैठ जाता है; सब ब्राह्मण और साधु खड़े होकर हाथ में पुष्प ले-

नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं शकिंत च तत्पुत्रपराशरं च ।
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तम्।।

इत्यादि श्लोक पढ़ के हर-हर बोल उन के ऊपर पुष्प वर्षा कर साष्टांग नमस्कार करते हैं। जो कोई ऐसा न करे उस को वहां रहना भी कठिन है। यह दम्भ संसार को दिखलाने के लिए करते हैं जिससे जगत् में प्रतिष्ठा होकर माल मिले। कितने ही मठधारी गृहस्थ होकर भी संन्यास का अभिमानमात्र करते हैं; कर्म कुछ नहीं। संन्यास का वही कर्म है जो पांचवें समुल्लास में लिख आये हैं, उस को न करके व्यर्थ समय खोते हैं जो कोई अच्छा उपदेश करे उस के भी विरोधी होते हैं। बहुधा ये लोग, भस्म, रुद्राक्ष धारण करते और कोई-कोई शैव सम्प्रदाय का अभिमान रखते हैं । और जब कभी शास्त्रर्थ करते हैं तो अपने मत अर्थात् शंकराचार्योक्त का स्थापन और चक्रांकित आदि के खण्डन में प्रवृत्त रहते हैं। वेदमार्ग की उन्नति और यावत्पाखण्ड मार्ग हैं तावत् के खण्डन में प्रवृत्त नहीं होते। ये संन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हम को खण्डन मण्डन से क्या प्रयोजन? हम तो महात्मा हैं। ऐसे लोग भी संसार में भाररूप हैं। जब ऐसे हैं तभी तो वेदमार्गविरोवमी वाममार्गादि सम्प्रदायी, ईसाई, मुसलमान, जैनी आदि बढ़ गये; अब बढ़ते जाते हैं और इन का नाश होता जाता है तो भी इन की आंख नहीं खुलती!

खुले कहाँ से? जो कुछ उन के मन में परोपकार बुद्धि और कर्त्तव्यकर्म करने में उत्साह होवे! किन्तु ये लोग अपनी प्रतिष्ठा खाने पीने के सामने अन्य अधिक कुछ भी नहीं समझते और संसार की निन्दा से बहुत डरते हैं। पुनः (लोकैषणा) लोक में प्रतिष्ठा (वित्तैषणा) धन बढ़ाने में तत्पर होकर विषयभोग (पुत्रैषणा) पुत्रवत् शिष्यों पर मोहित होना, इन तीन एषणाओं का त्याग करना उचित है। जब एषणा ही नहीं छूटी पुनः संन्यास क्योंकर हो सकता है? अर्थात् पक्षपातरहित वेदमार्गोपदेश से जगत् के कल्याण करने में अहिर्नश प्रवृत्त रहना संन्यासियों का मुख्य काम है। जब अपने-अपने अधिकार कर्मों को नहीं करते पुनः संन्यासादि नाम धराना व्यर्थ है। नहीं तो जैसे गृहस्थ व्यवहार और स्वार्थ में परिश्रम करते हैं, उनसे अधिक परिश्रम परोपकार करने में संन्यासी भी तत्पर रहैं तभी सब आश्रम उन्नति पर रहैं।

देखो! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढ़ते जाते हैं, ईसाई, मुसलमान तक होते जाते हैं। तनिक भी तुम से अपने घर की रक्षा और दूसरों का मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब जब तुम करना चाहो! जब लों वर्त्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते तब लों आर्य्यावर्त्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। जब वृद्धि के कारण वेदादि सत्यशास्त्रें का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। चेत रक्खो! बहुत सी पाखण्ड की बातें तुम को सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु, दुकानदार पुत्रदि देने की सिद्धियां बतलाता है। तब उस के पास बहुत स्त्री जाती हैं और हाथ जोड़कर पुत्र मांगती हैं। और बाबा जी सब को पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उन में से जिस-जिस के पुत्र होता है वह-वह समझती हैं कि बाबा जी के वचन से ऐसा हुआ। जब उन से कोई पूछे कि सूअरी, कुत्ती, गधी और कुक्कुटी आदि के कच्चे बच्चे किस बाबा जी के वचन से होते हैं? तब कुछ भी उत्तर न दे सकेंगी! जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूं तो आप ही क्यों मर जाता है?

कितने ही धूर्त्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पांच सात मिल के दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डौलडाल में अच्छा होता है उस को सिद्ध बना लेते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं उस के समीप जंगल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अजान बनके जिस किसी को पूछते हैं-‘तुम ने ऐसे महात्मा को यहां कहीं देखा वा नहीं? वे ऐसा सुनकर पूछते हैं कि वह महात्मा कौन और कैसा है?

साधक कहता है-बड़ा सिद्ध पुरुष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है वह हो जाता है। बड़ा योगीराज है, उसके दर्शन के लिए हम अपने घर द्वार छोड़कर देखते फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था कि वे महात्मा इधर की ओर आये हैं।

गृहस्थ कहता है-जब वह महात्मा तुम को मिले तो हम को भी कहना। दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेंगे। इसी प्रकार दिन भर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को इकट्ठे सिद्ध साधक होकर खाते पीते और सो रहते हैं। फिर भी प्रातःकाल नगर वा ग्राम में जाके उसी प्रकार दो तीन दिन कहकर फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुम को दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैय्यार होते हैं तब साधक उन से पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हम से कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन की, कोई रोग-निवारण की और कोई शत्रु के जीतने की। उन को वे साधक ले जाते हैं। सिद्ध साधकों ने जैसा संकेत किया होता है अर्थात् जिस को धन की इच्छा हो उस को दाहिनी, और जिस को पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख, और जिस को रोग-निवारण की इच्छा हो उस को बाईं ओर और जिस को शत्रु जीतने की इच्छा हो उस को पीछे से ले जा के सामने वाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं उसी समय वह सिद्ध अपनी सिद्धाई की झपट से उच्च स्वर से बोलता है-‘क्या यहां हमारे पास पुत्र रक्खे हैं जो तू पुत्र की इच्छा करके आया है? इसी प्रकार धन की इच्छा वाले से ‘क्या यहां थैलियां रक्खी हैं जो धन की इच्छा करके आया है? ‘फकीरों के पास धन कहां धरा है? ’ रोगवाले से ‘क्या हम वैद्य हैं जो तू रोग छुड़ाने की इच्छा से आया? हम वैद्य नहीं जो तेरा रोग छुड़ावें; जा किसी वैद्य के पास’ परन्तु जब उस का पिता रोगी हो तो उस का साधक अंगूठा; जो माता रोगी हो तो तर्जनी; जो भाई रोगी हो मध्यमा, जो स्त्री रोगी हो तो अनामिका; जो कन्या रोगी हो तो कनिष्ठिका अंगुली चला देता है। उस को देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है। तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री, और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों के चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उन से कहते हैं-देखो! हम ने कहा था वैसे ही हैं वा नहीं?

गृहस्थ कहते हैं-हां जैसा तुमने कहा था वैसे ही हैं। तुम ने हमारा बड़ा उपकार किया और हमारा भी बड़ा भाग्योदय था जो ऐसे महात्मा मिले। जिस के दर्शन करके हम कृतार्थ हुए।

साधक कहता है-सुनो भाई! ये महात्मा मनोगामी हैं। यहां बहुत दिन रहने वाले नहीं। जो कुछ इन का आशीर्वाद लेना हो तो अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुकूल इन की तन, मन, धन से सेवा करो, क्योंकि ‘सेवा से मेवा मिलती है।’ जो किसी पर प्रसन्न हो गये तो जाने क्या वर दे दें। ‘सन्तों की गति अपार है।’ गृहस्थ ऐसे लल्लो-पत्तो की बातें सुनकर बड़े हर्ष से उनकी प्रशंसा करते हुए घर की ओर जाते हैं। साधक भी उनके साथ ही चले जाते हैं क्योंकि मार्ग में कोई उन का पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला उस से प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार जो-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृत्तान्त सब कह देते हैं। जब नगर में हल्ला मचता है कि अमुक ठौर एक बड़े भारी सिद्ध आये हैं; चलो उन के पास। जब मेला का मेला जाकर बहुत से लोग पूछने लगते हैं कि महाराज! मेरे मन का वृत्तान्त कहिये। तब तो व्यवस्था के बिगड़ जाने से चुपचाप होकर मौन साध जाता है और कहता है कि हम को बहुत मत सताओ। तब तो झट उसके साधक भी कहने लग जाते हैं जो तुम इन को बहुत सताओगे तो चले जायेंगे और जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है वह साधक को अलग बुला कर पूछता है कि हमारे मन की बात कहला दो तो हम सच मानें। साधक ने पूछा कि क्या बात है? धनाढ्य ने उस से कह दी। तब उस को उसी प्रकार के संकेत से ले जा के बैठाल देता है। उसे सिद्ध ने समझ के झट कह दिया, तब तो सब मेला भर ने सुन ली कि अहो ! बड़े ही सिद्ध पुरुष हैं। कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रुपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा सामग्री भेंट करता है। फिर जब तक मानता बहुत सी रही तब तक यथेष्ट लूट करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दो एक आंख के अन्धे गांठ के पूरों को पुत्र होने का आशीर्वाद वा राख उठा के दे देता है और उस से सहस्रों रुपये लेकर कह देता है कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो तेरा पुत्र हो जायगा। इस प्रकार के बहुत से ठग होते हैं जिन को विद्वान् ही परीक्षा कर सकते हैं और कोई नहीं। इसलिए वेदादि विद्या का पढ़ना, सत्संग करना होता है जिस से कोई उस को ठगाई में न फंसा सके। औरों को भी बचा सके क्योंकि मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य और विद्वान् होते हैं। जिन को कुसंग है वे दुष्ट पापी महामूर्ख हो कर बड़े दुःख पाते हैं। इसीलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है वही मानता है।

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तस्य निन्दां सततं करोति ।
यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ता परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जा ।।

यह किसी कवि का श्लोक है।

जो जिस का गुण नहीं जानता वह उस की निन्दा निरन्तर करता है। जैसे जंगली भील गजमुक्ताओं को छोड़ गुञ्जा का हार पहिन लेता है वैसे ही जो पुरुष विद्वान्, ज्ञानी, धार्मिक सत्पुरुषों का संगी, योगी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय सुशील होता है वही धर्मार्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आनन्द में रहता है। यह आर्यावर्त्तनिवासी लोगों के मत विषय में संक्षेप से लिखा है। इस के आगे जो थोड़ा सा आर्यराजाओं का इतिहास मिला है इस को सब सज्जनों को जनाने के लिये प्रकाशित किया जाता है। अब आर्यावर्त्तदेशीय राजवंश कि जिस में श्रीमान् महाराज ‘युधिष्ठिर’ से लेके महाराज ‘यशपाल’ पर्यन्त हुए हैं उस इतिहास को लिखते हैं। और श्रीमान् महाराज ‘स्वायम्भुव मनु जी’ से लेके महाराजा ‘युधिष्ठिर’ पर्यन्त का इतिहास महाभारतादि में लिखा ही है और इस से सज्जन लोगों को इधर के कुछ इतिहास का वर्त्तमान विदित होगा। यद्यपि यह विषय विद्यार्थी सम्मिलित ‘हरिश्चन्द्रचन्द्रिका’ और ‘मोहनचन्द्रिका’ जो कि पाक्षिकपत्र श्रीनाथद्वारे से निकलता था जो राजपूताना देश मेवाड़ राज उदयपुर, चितौड़गढ़ में सब को विदित है; यह उस से हम ने अनुवाद किया है। यदि ऐसे ही हमारे आर्य सज्जन लोग इतिहास और विद्या पुस्तकों का खोज कर प्रकाश करेंगे तो देश को बड़ा ही लाभ पहुंचेगा। उस पत्र सम्पादक महाशय ने अपने मित्र से एक प्राचीन पुस्तक जो कि संवत् विक्रम के १७८२ (सत्रह सौ बयासी) का लिखा हुआ था, उस से ग्रहण कर अपने संवत् १९३९ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष १९-२० किरण अर्थात् दो पाक्षिक-पत्रें में छापा है सो लिखे प्रमाणे जानिये।

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How many ungrateful people create such illusion that even the most intelligent are deceived, like the thugs of Dhansari. These people go to the distant country of five to seven mill. Those who are good at dowdal from the body make them perfect. They sit that Siddha in the forest near the town or village where the wealthy are wealthy. His followers go to the city and become Ajan to whom they ask - "Have you seen such a Mahatma here or not?" Hearing this, they ask who and how is that Mahatma?

 

 

 

 


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