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द्वादश समुल्लास खण्ड-10

(प्रश्न) हम अपने हाथ से उष्ण जल नहीं करते और न किसी गृहस्थ को उष्ण जल करने की आज्ञा देते हैं, इसलिए हम को पाप नहीं।

(उत्तर) जो तुम उष्ण जल न लेते, न पीते तो गृहस्थ उष्ण क्यों करते? इसलिये उस पाप के भागी तुम ही हो; प्रत्युत अधिक पापी हो क्योंकि जो तुम किसी एक गृहस्थ को उष्ण करने को कहते तो एक ही ठिकाने उष्ण होता है। जब वे गृहस्थ इस भ्रम में रहते हैं कि न जाने साधु जी किस के घर को आवेंगे इसलिये प्रत्येक गृहस्थ अपने-अपने घर में उष्ण जल कर रखते हैं। इस के पाप के भागी मुख्य तुम ही हो। दूसरा अधिक काष्ठ और अग्नि के जलने जलाने से भी ऊपर लिखे प्रमाणे रसोई, खेती और व्यापारादि में अधिक पापी और नरकगामी होते हो। फिर जब तुम उष्ण जल कराने के मुख्य निमित्त और तुम उष्ण जल के पीने और ठण्डे के न पीने के उपदेश करने से तुम ही मुख्य पाप के भागी हो। और जो तुम्हारा उपदेश मान कर ऐसी बातें करते हैं वे भी पापी हैं। अब देखो! कि तुम बड़ी अविद्या में होते हो वा नहीं कि छोटे-छोटे जीवों पर दया करनी और अन्य मत वालों की निन्दा, अनुपकार करना क्या थोड़ा पाप है? जो तुम्हारे तीर्थंकरों का मत सच्चा होता तो सृष्टि में इतनी वर्षा, नदियों का चलना और इतना जल क्यों उत्पन्न ईश्वर ने किया? और सूर्य्य को भी उत्पन्न न करता क्योंकि इन में क्रोड़ान् क्रोड़ जीव तुम्हारे मतानुसार मरते ही होंगे। जब वे विद्यमान थे और तुम जिन को ईश्वर मानते हो उन्होंने दयाकर सूर्य्य का ताप और मेघ को बन्ध क्यों नहीं किया? और पूर्वोक्त प्रकार से विना विद्यमान प्राणियों के दु ख, सुख की प्राप्ति कन्दमूलादि पदार्थों में रहने वाले जीवों को नहीं होती। सर्वथा सब जीवों पर दया करना भी दुःख का कारण होता है क्योंकि जो तुम्हारे मतानुसार सब मनुष्य हो जावें। चोर डाकुओं को कोई भी दण्ड न देवे तो कितना बड़ा पाप खड़ा हो जाये? इसलिए दुष्टों को यथावत् दण्ड देने और श्रेष्ठों के पालन करने में दया और इस से विपरीत करने में दया क्षमारूप धर्म का नाश है। कितने जैनी लोग दुकान करते, उन व्यवहारों में झूठ बोलते, पराया धन मारते और दीनों को छलने आदि कुकर्म करते हैं उन के निवारण में विशेष उपदेश क्यों नहीं करते? और मुखपट्टी बांधने आदि ढोंग में क्यों रहते हो? जब तुम चेला, चेली करते हो तब केशलुञ्चन और बहुत दिवस भूखे रहने में पराये वा अपने आत्मा को पीड़ा दे और पीड़ा को प्राप्त होके दूसरों को दुःख देते । और आत्महत्या अर्थात् आत्मा को दुःख देने वाले होकर हिसक क्यों बनते हो? जब हाथी, घोड़े, बैल, ऊँट पर चढ़ने और मनुष्यों को मजूरी कराने में पाप जैनी लोग क्यों नहीं गिनते? जब तुम्हारे चेले ऊटपटांग बातों को सत्य नहीं कर सकते तो तुम्हारे तीर्थंकर भी सत्य नहीं कर सकते। जब तुम कथा बांचते हो तो मार्ग में श्रोताओं के और तुम्हारे मतानुसार जीव मरते ही होंगे इसलिये तुम इस पाप के मुख्य कारण क्यों होते हो? इस थोड़े कथन से बहुत समझ लेना कि उन जल, स्थल, वायु के स्थावर शरीर वाले अत्यन्त मूर्छित जीवों को दु ख वा सुख कभी नहीं पहुंच सकता। अब जैनियों की और भी थोड़ी सी असम्भव कथा लिखते हैं। सुनना चाहिये और यह भी ध्यान में रखना कि अपने हाथ से साढ़े तीन हाथ का धनुष होता है। और काल की संख्या जैसी पूर्व लिख आये हैं वैसी ही समझना। रत्नसार भाग १। पृष्ठ १६६-१६७ तक में लिखा है-

(१) ऋषभदेव का शरीर ५०० पांच सौ धनुष् लम्बा और ८४००००० (चौरासी लाख) पूर्व का आयु। (२) अजितनाथ का ४५० धनुष् परिमाण का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (३) सम्भवनाथ का शरीर ४०० चार सौ धनुष् परिमाण शरीर और ६०००००० (साठ लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (४) अभिनन्दन का ३५० साढ़े तीन सौ धनुष् का शरीर और ५०००००० (पचास लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (५) सुमतिनाथ का ३०० धनुष् परिमाण का शरीर और ४०००००० (चालीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (६) पद्मप्रभ का १४० धनुष् का शरीर और परिमाण ३०००००० (तीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (७) पार्श्वनाथ का २०० धनुष् का शरीर और २०००००० (बीस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (८) चन्द्रप्रभ का १५० धनुष् परिमाण का शरीर और १०००००० (दस लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (९) सुविधिनाथ का १०० सौ धनुष् का शरीर और २००००० (दो लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (१०) शीतलनाथ का ९० नब्बे धनुष् का शरीर और १००००० (एक लाख) पूर्व वर्ष का आयु। (११) श्रेयांसनाथ का ८० धनुष् का शरीर और ८४००००० (चौरासी लाख) वर्ष का आयु। (१२) वासुपूज्य स्वामी का ७० धनुष् का शरीर और ७२००००० (बहत्तर लाख) वर्ष का आयु। (१३) विमलनाथ का ६० धनुष् का शरीर और ६०००००० (साठ लाख) वर्षों का आयु। (१४) अनन्तनाथ का ५० धनुष् का शरीर और ३०००००० (तीस लाख) वर्षों का आयु। (१५) धर्मनाथ का ४५ धनुष् का शरीर और १०००००० (दस लाख) वर्षों का आयु। (१६) शान्तिनाथ का ४० धनुषों का शरीर और १००००० (एक लाख) वर्ष का आयु। (१७) कुन्थुनाथ का ३५ धनुष् का शरीर और ९५००० (पचानवें सहस्र) वर्षों का आयु। (१८) अमरनाथ का ३० धनुषों का शरीर और ८४००० (चौरासी सहस्र) वर्षों का आयु। (१९) मल्लीनाथ का २५ धनुषों का शरीर और ५५००० (पचपन सहस्र) वर्षों का आयु। (२०) मुनि सुव्रत का २० धनुषों का शरीर और ३०००० (तीस सहस्र) वर्षों का आयु। (२१) नमिनाथ का १४ धनुषों का शरीर और १०००० (दश सहस्र) वर्षों का आयु। (२२) नेमिनाथ का १० धनुषों का शरीर और १०००० (दश सहस्र) वर्ष का आयु। (२३) पार्श्वनाथ ९ हाथ का शरीर और १०० (सौ) वर्ष का आयु। (२४) महावीर स्वामी का ७ हाथ का शरीर और ७२ वर्षों की आयु। ये चौबीस तीर्थंकर जैनियों के मत चलाने वाले आचार्य और गुरु हैं। इन्हीं को जैनी लोग परमेश्वर मानते हैं और ये सब मोक्ष को गये हैं। इसमें बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि इतने बड़े शरीर और इतना आयु मनुष्य देह का होना कभी सम्भव है? इस भूगोल में बहुत ही थोड़े मनुष्य वस सकते हैं। इन्हीं जैनियों के गपोड़े लेकर जो पुराणियों ने एक लाख, दश सहस्र और एक सहस्र वर्ष का आयु लिखा सो भी सम्भव नहीं हो सकता तो जैनियों का कथन सम्भव कैसे हो सकता है? अब और भी सुनो-कल्पभाष्य पृष्ठ ४ -नागकेत ने ग्राम की बराबर एक शिला अंगुली पर धर ली! कल्पभाष्य पृष्ठ ३५ -महावीर ने अंगूठे से पृथिवी को दबाई उस से शेषनाग कंप गया! कल्पभाष्य पृष्ठ ४६ -महावीर को सर्प ने काटा, रुधिर के बदले दूध निकला। और वह सर्प ८वें स्वर्ग को गया!। कल्पभाष्य पृष्ठ ४७ -महावीर के पग पर खीर पकाई और पग न जले!। कल्पभाष्य पृष्ठ १६ -छोटे से पात्र में ऊंट बुलाया! रत्नसार भाग १। प्रथम पृष्ठ १४ -शरीर के मैल को न उतारे और न खुजलावें। विवेकसार पृष्ठ २१५ -जैनियों के एक दमसार साधु ने क्रोधित होकर उद्वेगजनक सूत्र पढ़ कर एक शहर में आग लगा दी और महावीर तीर्थंकर का अति प्रिय था। विवेक पृष्ठ २२७ -राजा की आज्ञा अवश्य माननी चाहिये। विवेक पृष्ठ २२७ -एक कोशा वेश्या ने थाली में सरसों की ढेरी लगा उस के ऊपर फूलों से ढकी हुई सुई खड़ी कर उस पर अच्छे प्रकार नाच किया परन्तु सुई पग में गड़ने न पाई और सरसों की ढेरी बिखरी नहीं!!! तत्त्वविवेक पृष्ठ २२८ -इसी कोशा वेश्या के साथ एक स्थूलमुनि ने १२ वर्ष तक भोग किया और पश्चात् दीक्षा लेकर सद्गति को गया और कोशा वेश्या भी जैन धर्म को पालती हुई सद्गति को गई। विवेकसार पृष्ठ १९५ -एक सिद्ध की कन्था जो गले में पहिनी जाती है वह ५०० अशर्फी एक वैश्य को नित्य देती रही। विवेकसार पृष्ठ २२८ -बलवान् पुरुष की आज्ञा, देव की आज्ञा, घोर वन में कष्ट से निर्वाह, गुरु के रोकने, माता, पिता, कुलाचार्य्य, ज्ञातीय लोग और धर्मोपदेष्टा इन छः के रोकने से धर्म में न्यूनता होने से धर्म की हानि नहीं होती।

(समीक्षक) अब देखिये इन की मिथ्या बातें। एक मनुष्य ग्राम के बराबर पाषाण की शिला को अंगुली पर कभी धर सकता है? और पृथिवी के ऊपर अंगूठे से दबाने से पृथिवी कभी दब सकती है? और जब शेषनाग ही नहीं तो कंपेगा कौन? ।।२।। भला शरीर के काटने से दूध निकलना किसी ने नहीं देखा। सिवाय इन्द्रजाल के दूसरी बात नहीं। उस को काटने वाला सर्प तो स्वर्ग में गया और महात्मा श्रीकृष्ण आदि तीसरे नरक को गये यह कितनी मिथ्या बात है? ।।३। ४।। जब महावीर के पग पर खीर पकाई तब उसके पग जल क्यों न गये? ।।५।। भला छोटे से पात्र में कभी ऊंट आ सकता है।।६।। जो शरीर का मैल नहीं उतारते और न खुजलाते होंगे वे दुर्गन्धरूप महानरक भोगते होंगे।।७।। जिस साधु ने नगर जलाया उस की दया और क्षमा कहां गई? जब महावीर के संग से भी उस का पवित्र आत्मा न हुआ तो अब महावीर के मरे पीछे उस के आश्रय से जैन लोग कभी पवित्र न होंगे।।८।। राजा की आज्ञा माननी चाहिये परन्तु जैन लोग बनिये हैं इसलिये राजा से डर कर यह बात लिख दी होगी।।९।। कोशा वेश्या चाहे उस का शरीर कितना ही हल्का हो तो भी सरसों की ढेरी पर सुई खड़ी करके उसके ऊपर नाचना, सूई का न छिदना और सरसों का न बिखरना अतीव झूठ नहीं तो क्या है? ।।१०।। धर्म किसी को किसी अवस्था में भी न छोड़ना चाहिये; चाहे कुछ भी हो जाय।।११।। भला कन्था वस्त्र का होता है वह नित्यप्रति ५०० अशर्फी किस प्रकार दे सकता है? ।।१२।। अब ऐसी-ऐसी असम्भव कहानी इनकी लिखें तो जैनियों के थोथे पोथों के सदृश बढ़ जाय इसलिये अधिक नहीं लिखते। अर्थात् थोड़ी सी इन जैनियों की बातें छोड़ के शेष सब मिथ्या जाल भरा है। देखिये-

दो ससि दो रवि पढमे। दुगुणा लवणंमि धायई संडे।
बारस ससि बारस रवि। तप्पमि इं निदिठ ससि रविणो।।

तिगुणा पुब्बिल्लजया। अणंतराणंतरं मिखित्तमि।
कालो ए बयाला। बिसत्तरी पुरकर द्वंमि।। -प्रकरण भाग ४। संग्रहणीसूत्र ७७, ७८।।

जो जम्बूद्वीप लाख योजन अर्थात् ४ लाख कोश का लिखा है उन में यह पहला द्वीप कहाता है। इस में दो चन्द्र और सूर्य्य हैं और वैसे ही लवण समुद्र में उससे दुगुणे अर्थात् ४ चन्द्रमा और चार सूर्य्य हैं तथा धातकीखण्ड में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य्य हैं।।७७।। और इन को तिगुणा करने से छत्तीस होते हैं, उनके साथ दो जम्बूद्वीप के और चार लवण समुद्र के मिलकर ब्यालीस चन्द्रमा और ब्यालीस सूर्य्य कालोदधि समुद्र में हैं। इसी प्रकार अगले-अगले द्वीप और समुद्रों में पूर्वोक्त ब्यालीस को तिगुणा करें तो एक सौ छब्बीस होते हैं। उन में धातकीखण्ड के बारह, लवण समुद्र के ४ चार और जम्बूद्वीप के जो दो-दो इसी रीति से निकाल कर १४४ एक सौ चवालीस चन्द्र और १४४ सूर्य्य पुष्करद्वीप में हैं। यह भी आधे मनुष्यक्षेत्र की गणना है। परन्तु जहां तक मनुष्य नहीं रहते हैं वहां बहुत से सूर्य्य और बहुत से चन्द्र हैं और जो पिछले अर्ध पुष्करद्वीप में बहुत चन्द्र और सूर्य्य हैं वे स्थिर हैं। पूर्वोक्त एक सौ चवालीस को तिगुणा करने से ४३२ और उन में पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के दो चन्द्र्रमा, दो सूर्य्य, चार-चार लवण समुद्र के और बारह-बारह वमातकीखण्ड के और ब्यालीस कालोदधि के मिलाने से ४९२ चन्द्रमा तथा ४९२ सूर्य्य पुष्कर समुद्र में हैं। ये सब बातें श्रीजिनभद्रगणीक्षमाश्रमण ने बड़ी ‘संघयणी’ में तथा ‘योतीसकरण्डक पयन्ना’ मध्ये और ‘चन्द्रपन्नति’ तथा ‘सूरपन्नति’ प्रमुख सिद्धान्तग्रन्थों में इसी प्रकार कहा है।।७८।।

(समीक्षक) अब सुनिये भूगोल खगोल के जानने वालो! इस एक भूगोल में एक प्रकार ४९२ चार सौ बानवे और दूसरी प्रकार असंख्य चन्द्र और सूर्य्य जैनी लोग मानते हैं। आप लोगों का बड़ा भाग्य है कि वेदमतानुयायी सूर्य्यसिद्धान्तादि ज्योतिष ग्रन्थों के अध्ययन से ठीक-ठीक भूगोल खगोल विदित हुए। जो कहीं जैन के महा अन्धेर मत में होते तो जन्मभर अन्धेर में रहते जैसे कि जैनी लोग आजकल हैं। इन अविद्वानों को यह शंका हुई कि जम्बूद्वीप में एक सूर्य और एक चन्द्र से काम नहीं चलता क्योंकि इतनी बड़ी पृथिवी को तीस घड़ी में चन्द्र, सूर्य कैसे आ सकें? क्योंकि पृथिवी को ये लोग सूर्यादि से भी बड़ी और स्थिर मानते हैं यही इन की बड़ी भूल है।

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