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द्वादश समुल्लास खण्ड-11

दो ससि दो रवि पंती एगंतरिया छसठि संखाया।
मेरुं पयाहिणंता। माणुसखित्ते परिअडंति।। -प्रकरण०भाग ४। संग्रहणी सू० ७९।।

मनुष्यलोक में चन्द्रमा और सूर्य की पंक्ति की संख्या कहते हैं। दो चन्द्रमा और दो सूर्य की पंक्ति (श्रेणी) हैं, वे एक-एक लाख योजन अर्थात् चार लाख कोश के आंतरे से चलते हैं। जैसे सूर्य की पंक्ति के आंतरे एक पंक्ति चन्द्र की है इसी प्रकार चन्द्रमा की पंक्ति के आंतरे सूर्य की पंक्ति है। इसी रीति से चार पंक्ति हैं वे एक-एक चन्द्र पंक्ति में ६६ चन्द्रमा और एक-एक सूर्य पंक्ति में ६६ सूर्य हैं। वे चारों पंक्ति जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करती हुई मनुष्य-क्षेत्र में परिभ्रमण करती हैं अर्थात् जिस समय जम्बूद्वीप के मेरु से एक सूर्य दक्षिण दिशा में विहरता उस समय दूसरा सूर्य उत्तर दिशा में फिरता है। वैसे ही लवण समुद्र की एक-एक दिशा में दो-दो चलते फिरते। धातकीखण्ड के ६, कालोदधि के २१, पुष्करार्द्ध के ३६, इस प्रकार सब मिलकर ६६ सूर्य दक्षिण दिशा और ६६ सूर्य उत्तर दिशा में अपने-अपने क्रम से फिरते हैं। और जब इन दोनों दिशा के सब सूर्य मिलाये जायें तो १३२ सूर्य और ऐसे ही छासठ-छासठ चन्द्रमा की दोनों दिशाओं की पंक्तियां मिलाई जायें तो १३२ चन्द्रमा मनुष्यलोक में चाल चलते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा के साथ नक्षत्रदि की भी पंक्तियां बहुत सी जाननीं।।७९।।

(समीक्षक) अब देखो भाई! इस भूगोल में १३२ सूर्य और १३२ चन्द्रमा जैनियों के घर पर तपते होंगे! भला जो तपते होंगे तो वे जीते कैसे हैं? और रात्रि में भी शीत के मारे जैनी लोग जकड़ जाते होंगे? ऐसी असम्भव बात में भूगोल, खगोल के न जानने वाले फंसते हैं; अन्य नहीं। जब एक सूर्य इस भूगोल के सदृश अन्य अनेक भूगोलों को प्रकाशता है तब इस छोटे से भूगोल की क्या कथा कहनी। और जो पथिवी न घूमे और सूर्य पृथिवी के चारों और घूमे तो कई एक वर्षों का दिन और रात होवे। और सुमेरु विना हिमालय के दूसरा कोई नहीं। यह सूर्य के सामने ऐसा है कि जैसे घड़े के सामने राई का दाना भी नहीं। इन बातों को जैनी लोग जब तक उसी मत में रहेंगे तब तक नहीं जान सकते किन्तु सदा अन्धेरे में रहेंगे।

सम्मत्तचरण सहिया सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं ।
सत्तय चउदस भाए पंचय सुयदेशविरईए।। -प्रकरण०भा० ४। संग्रहणी सू० १३५।।

सम्यक्चारित्र सहित जो केवली वे केवल समुद्घात अवस्था से सर्व चौदह राज्यलोक अपने आत्मप्रदेश करके फिरेंगे।।१३५।।

(समीक्षक) जैनी लोग १४ चौदह राज्य मानते हैं। उन में से चौदहवें की शिखा पर सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर थोड़े दूर पर सिद्धशिला तथा दिव्य आकाश को शिवपुर कहते हैं। उस में केवली अर्थात् जिन को केवलज्ञान सर्वज्ञता और पूर्ण पवित्रता प्राप्त हुई है वे उस लोक में जाते हैं और अपने आत्मप्रदेश में सर्वज्ञ रहते हैं। जिस का प्रदेश होता है वह विभु नहीं, जो विभु नहीं वह सर्वज्ञ केवलज्ञानी कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जिस का आत्मा एकदेशी है वही जाता आता है और बद्ध, मुक्त, ज्ञानी, अज्ञानी होता है। सर्वव्यापी सर्वज्ञ वैसा कभी नहीं हो सकता। जो जैनियों के तीर्थंकर जीवरूप अल्प, अल्पज्ञ होकर स्थित थे, वे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकते। किन्तु जो परमात्मा अनाद्यनन्त, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, पवित्र, ज्ञानस्वरूप है उस को जैनी लोग मानते नहीं कि जिस में सर्वज्ञादि गुण याथातथ्य घटते हैं।

गब्भनर तिपलियाऊ। तिगाऊ उक्कोस ते जहन्नेणं।
मुच्छिम दुहावि अन्तमुहु। अंगुल असंख भागतणू।। - संग्रहणी० २४१।।

यहां मनुष्य दो प्रकार के हैं। एक गर्भज, दूसरे जो गर्भ के विना उत्पन्न हुए। उन में गर्भज मनुष्य का उत्कृष्ट तीन पल्योपम का आयु जानना और तीन कोश का शरीर।।२४१।।

(समीक्षक) भला तीन पल्योपम का आयु और तीन कोश के शरीर वाले मनुष्य इस भूगोल में बहुत थोड़े समा सकें और फिर तीन पल्योपम की आयु जैसा कि पूर्व लिख आये हैं उतने समय तक जीवें तो वैसे ही उन के सन्तान भी तीन-तीन कोश के शरीर वाले होने चाहिये। इन जैसे ‘मुम्बई’ से शहर में दो और ‘कलकत्ता’ ऐसे शहर में तीन वा चार मनुष्य निवास कर सकते हैं। जो ऐसा है तो जैनियों ने एक नगर में लाखों मनुष्य लिखे हैं तो उनके रहने का नगर भी लाखों कोशों का होना चाहिये तो सब भूगोल में वैसा एक नगर भी न बस सके।

पणयाल लरकजोयण विरकंभा सिद्धिसिल फलिह विमला।
तदुवरि गजोयणंते लोगंतो तच्छ सिद्धठिई।।२५८।।

जो सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर १२ योजन सिद्धशिला है वह वाटला और लम्बेपन और पोलपन में ४५ पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है वह सब धवला अर्जुन सुवर्णमय स्फटिक के समान निर्मल सिद्धशिला की सिद्धभूमि है। इस को कोई ‘ईषत्’ ‘प्राग्भरा’ ऐसा नाम कहते हैं। यह सर्वार्थसिद्धशिला विमान से १२ योजन अलोक भी है। यह परमार्थ केवली बहुश्रुत जानता है। यह सिद्धशिला सर्वार्थ, मध्य भाग में ८ योजन स्थूल है। वहां से ४ दिशा और ४ उपदिशा में घटती-घटती मक्खी के पांख के सदृश पतली उत्तानछत्र और आकार करके सिद्धशिला की स्थापना है। उस शिला से ऊपर १ एक योजन के आंतरे लोकान्त है। वहां सिद्धों की स्थिति है।।२५८।।

(समीक्षक) अब विचारना चाहिये कि जैनियों के मुक्ति का स्थान सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा के ऊपर ४५ पैंतालीस लाख योजन की शिला अर्थात् चाहैं ऐसी अच्छी और निर्मल हो तथापि उसमें रहने वाले मुक्त जीव एक प्रकार के बद्ध हैं क्योंकि उस शिला से बाहर निकलने में मुक्ति के सुख से छूट जाते होंगे। और जो भीतर रहते होंगे तो उन को वायु भी न लगता होगा। यह केवल कल्पनामात्र अविद्वानों को फंसाने के लिये भ्रमजाल है।

वि ति चउरिंदिस सरीरं । बारस जोयणं तिकोस चउकोसं।
जोयण सहसपणिदिय । उहे वुच्छंत विसेसंतु।। -प्रकरण०भा० ४। संग्रह० सू० २६७।।

सामान्यपन से एकेन्द्रिय का शरीर १ सहस्र योजन के शरीर वाला उत्कृष्ट जानना और दो इन्द्रिय वाले जो शखांदि उन का शरीर १२ योजन का जानना। वैसे ही कीड़ी मकोड़ादि तीन इन्द्रिय वालों का शरीर ३ कोश का जानना। और चतुरिन्द्रिय भ्रमरादि का शरीर ४ कोश का और पञ्चेन्द्रिय का एक सहस्र योजन अर्थात् ४ सहस्र कोश के शरीर वाले जानना।।२६७।।

(समीक्षक) चार-चार सहस्र कोश के प्रमाण वाले शरीर वाले हों तो भूगोल में तो बहुत थोड़े मनुष्य अर्थात् सैकड़ों मनुष्यों से भूगोल ठस भर जाय। किसी की चलने की जगह भी न रहै फिर वे जैनियों से रहने का ठिकाना और मार्ग पूछें जो इन्होंने लिखा है तो अपने घर में रख लें। परन्तु चार सहस्र कोश के शरीर वाले को निवासार्थ कोई एक के लिए ३२ बत्तीस सहस्र कोश का घर तो चाहिये। ऐसे एक घर के बनवाने में जैनियों का सब धन चुक जाय तो भी घर न बन सके। इतने बड़े आठ सहस्र कोश की छत बनवाने के लिये लट्ठे कहां से लावेंगे? और जो उसमें खम्भा लगावें तो वह भीतर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिये ऐसी बातें मिथ्या हुआ करती हैं।

ते थूला पल्ले विहु संखिज्जाचे बहुंति सव्वेवि।
ते इक्किक्क असंखे । सुहुमे खम्भे पकप्पेह।। -प्रकरण०भा० ४। लघुक्षेत्रसमासप्रकरण सूत्र ४।।

पूर्वोक्त एक अंगुल लोम के खण्डों से ४ कोश का चौरस और उतना ही गहिरा कुआ हो। अंगुल प्रमाण लोम का खण्ड सब मिल के बीस लाख सत्तावन सहस्र एक सौ बावन होते हैं और अधिक से अधिक (३३०, ७६२१०४, २४६५६२५, ४२१९९६०, ९७५३६००, ०००००००) तैंतीस क्रोड़ाक्रोड़ी, सात लाख बासठ हजार एक सौ चार क्रोड़ाक्रोड़ी; चौबीस लाख पैंसठ हजार छः सौ पच्चीस इतने क्रोड़ाक्रोड़ी तथा ब्यालीस लाख उन्नीस हजार नौ सौ साठ इतनी क्रोड़ाक्रोड़ी तथा सत्तानवे लाख त्रेपन हजार और छः सौ क्रोड़ाक्रोड़ी, इतनी वाटला घन योजन पल्योपम में सर्व स्थूल रोम खण्ड की संख्या होवे यह भी संख्यातकाल होता है। पूर्वोक्त एक लोम खण्ड के असंख्यात खण्ड मन से कल्पे तब असंख्यात सूक्ष्म रोमाणु होवें।

(समीक्षक) अब देखिये इन की गिनती की रीति! एक अंगुल प्रमाण लोम के कितने खण्ड किये यह कभी किसी की गिनती में आ सकते हैं? और उस के उपरान्त मन से असंख्य खण्ड कल्पते हैं इससे यह भी सिद्ध होता है कि पूर्वोक्त खण्ड हाथ से किये होंगे। जब हाथ से न हो सके तब मन से किये। भला! यह बात कभी सम्भव हो सकती है कि एक अंगुल रोम के असंख्य खण्ड हो सकें?

जम्बूद्वीपपमाणं गुलजोयणलरक वट्टविरकंभी।
लवणाई यासेसा। बलयाभा दुगुण दुगुणाय।। -प्रकरण०भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० १२।।

प्रथम जम्बूद्वीप का लाख योजन का प्रमाण और पोला है और बाकी लवणादि सात समुद्र, सात द्वीप, जम्बूद्वीप के प्रमाण से दुगणे-दुगणे हैं। इस एक पृथिवी में जम्बूद्वीपादि सात द्वीप और सात समुद्र हैं जैसे पूर्व लिख आये हैं।।१२।।

(समीक्षक) अब जम्बूद्वीप से दूसरा द्वीप दो लाख योजन, तीसरा चार लाख योजन, चौथा आठ लाख योजन, पांचवां सोलह लाख योजन, छठा बत्तीस लाख योजन और सातवाँ चौसठ लाख योजन और उतने प्रमाण वा उन से अधिक समुद्र के प्रमाण से इस पन्द्रह सहस्र परिधि वाले भूगोल में क्योंकर समा सकते हैं। इससे यह बात केवल मिथ्या है।

कुरु नइ चुलसी सहसा। छच्चेवन्तरनईउ पइ विजयं।
दो दो महा नईउ । चउदस सहसाउ पत्तेयं।। -प्रकरणरत्ना०भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० ६३।।

कुरुक्षेत्र में ८४ चौरासी सहस्र नदी हैं।।६३।।

(समीक्षक) भला कुरुक्षेत्र बहुत छोटा देश है, उस को न देख कर एक मिथ्या बात लिखने में इन को लज्जा भी न आई।

जामुत्तराउ ताउ । इगेग सिहासणाउ अइपुब्बं।
चउसुवि तासु नियासण, दिसि भवजिण मज्जणं होई।। -प्रकरणरत्नाकर भा० ४। लघुक्षेत्रसमा० सू० ११९।।

उस शिला के विशेष दक्षिण और उत्तर दिशा में एक-एक सिहासन जानना चाहिये। उन शिलाओं के नाम दक्षिण दिशा में अति पाण्डु कम्बला, उत्तर दिशा में अति रक्त कम्बला शिला हैं। उन सिहासनों पर तीर्थंकर बैठते हैं।।११९।।

(समीक्षक) देखिये इन के तीर्थंकर के जन्मोत्सवादि करने की शिला को! ऐसी ही मुक्ति की सिद्धशिला है। ऐसी इन की बहुत सी बातें गोलमाल हैं; कहां तक लिखें? किन्तु जल छान के पीना और सूक्ष्म जीवों पर नाम मात्र दया करना; रात्रि को भोजन न करना ये तीन बातें अच्छी हैं। बाकी जितना इन का कथन है सब असम्भवग्रस्त है।

इतने ही लेख से बुद्धिमान् लोग बहुत सा जान लेंगे, थोड़ा सा यह दृष्टान्तमात्र लिखा है। जो इनकी असम्भव बातें सब लिखें तो इतने पुस्तक हो जायें कि एक पुरुष आयु भर में पढ़ भी न सके। इसलिये जैसे एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे वा पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं। क्योंकि दिग्दर्शनवत् सम्पूर्ण आशय को बुद्धिमान् लोग जान ही लेते हैं।

इसके आगे ईसाइयों के मत के विषय में लिखा जायेगा।

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे

सुभाषाविभूषिते नास्तिकमतान्तर्गतचार्वाक

बौद्धजैनमतखण्डनमण्डनविषये

द्वादश समुल्लास सम्पूर्ण ।।१२।।

 

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If you have a body with proofs of four thousand millenniums, then geography should be filled with very few humans, ie hundreds of humans. If there is no place for anyone to walk, then they ask the whereabouts of Jains to stay and the path which they have written, then keep it in their house. But for a person with four millennium cells, one needs 32 two thousand millennium houses for residence. Even if all the money of the Jains is paid in the construction of such a house, the house could not be built. 

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