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द्वादश समुल्लास खण्ड-6

मूल- सप्पो इक्कं मरणं, कुगुरु आणंताइ देइ मरणाइ।
तो वरिसप्पं गहियुं, मा कुगुरुसेवणं भद्दम्।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ३७।।

जैसे प्रथम लिख आये कि सर्प में मणि का भी त्याग करना उचित है वैसे अन्यमार्गियों में श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों का भी त्याग कर देना। अब उस से भी विशेष निन्दा अन्य मत वालों की करते हैं-जैनमत से भिन्न सब कुगुरु अर्थात् वे सर्प्प से भी बुरे हैं। उन का दर्शन, सेवा, संग कभी न करना चाहिये। क्योंकि सर्प्प के संग से एक बार मरण होता है और अन्यमार्गी कुगुरुओं के संग से अनेक बार जन्म मरण में गिरना पड़ता है। इसलिए हे भद्र! अन्यमार्गियों के गुरुओं के पास भी मत खड़ा रह क्योंकि जो तू अन्यमार्गियों की कुछ भी सेवा करेगा तो दुःख में पड़ेगा।।३७।।

(समीक्षक) देखिये! जैनियों के समान कठोर, भ्रान्त, द्वेषी, निन्दक, भूले हुए दूसरे मतवाले कोई भी न होंगे। इन्होंने मन से यह विचारा है कि जो हम अन्य की निन्दा और अपनी प्रशंसा न करेंगे तो हमारी सेवा और प्रतिष्ठा न होगी। परन्तु यह बात उन के दौर्भाग्य की है क्योंकि जब तक उत्तम विद्वानों का संग सेवा न करेंगे तब तक इन को यथार्थ ज्ञान और सत्य धर्म की प्राप्ति कभी न होगी। इसलिए जैनियों को उचित है कि अपनी विद्याविरुद्ध मिथ्या बातें छोड़ वेदोक्त सत्य बातों का ग्रहण करें तो उन के लिये बड़े कल्याण की बात है।

मूल- कि भणिमो कि करिमो, ताण हयासाण धिट्ठ दुट्ठाणं।
जे दंसि ऊण लिगं खिवंति न रयम्मि मुद्ध जणं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ४०।।

जिस की कल्याण की आशा नष्ट हो गई; धीठ, बुरे काम करने में अतिचतुर दुष्ट दोष वाले से क्या कहना? और क्या करना? क्योंकि जो उस का उपकार करो तो उलटा उस का नाश करे। जैसे कोई दया करके अन्धे सिह की आंख खोलने को जाये तो वह उसी को खा लेवे। वैसे ही कुगुरु अर्थात् अन्यमार्गियों का उपकार करना अपना नाश कर लेना है अर्थात् उनसे सदा अलग ही रहना।।४०।।

(समीक्षक) जैसे जैन लोग विचारते हैं वैसे दूसरे मत वाले भी विचारें तो जैनियों की कितनी दुर्दशा हो? और उन का कोई किसी प्रकार का उपकार न करे तो उन के बहुत से काम नष्ट होकर कितना दुःख प्राप्त हो? वैसा अन्य के लिये जैनी क्यों नहीं विचारते?

मूल- जह जह तुट्टइ धम्मो, जह जह दुट्ठाण होई अइ उदउ।
समद्दिट्ठि जियाणं, तह तह उल्लसइ समत्तं।। -प्रकन भा०२। षष्टी० सू० ४२।।

जैसे-जैसे दर्शनभ्रष्ट निह्नव, पाच्छत्ता, उसन्ना तथा कुसीलियादिक और अन्य दर्शनी, त्रिदण्डी, परिव्राजक तथा विप्रादिक दुष्ट लोगों का अतिशय बल सत्कार पूजादिक होवे वैसे-वैसे सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व विशेष प्रकाशित होवे यह बड़ा आश्चर्य है।।४२।।

(समीक्षक) अब देखो! क्या इन जैनों से अधिक ईर्ष्या, द्वेष, वैरबुद्धियुक्त दूसरा कोई होगा? हां दूसरे मत में भी ईर्ष्या, द्वेष है परन्तु जितनी इन जैनियों में है उतनी किसी में नहीं। और द्वेष ही पाप का मूल है इसलिए जैनियों में पापाचार क्यों न हो? ।

मूल- संगोवि जाण अहिउ, तेसि धम्माइ जे पकुव्वन्ति।
मुत्तूण चोर संगं, करन्ति ते चोरियं पावा।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० ७५।।

इस का मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि जैसे मूढ़जन चोर के संग से नासिकाछेदादि दण्ड से भय नहीं करते वैसे जैनमत से भिन्न चोर धर्मों में स्थित जन अपने अकल्याण से भय नहीं करते।।७५।।

(समीक्षक) जो जैसा मनुष्य होता है वह प्रायः अपने ही सदृश दूसरों को समझता है। क्या यह बात सत्य हो सकती है कि अन्य सब चोरमत और जैन का साहूकार मत है? जब तक मनुष्य में अति अज्ञान और कुसंग से भ्रष्ट बुद्धि होती है तब तक दूसरों के साथ अति ईर्ष्या, द्वेषादि दुष्टता नहीं छोड़ता। जैसा जैनमत पराया द्वेषी है ऐसा अन्य कोई नहीं।

मूल- जच्छ पसुमहिसलरका पव्वं होमन्ति पाव नवमीए।
पूअन्ति तंपि सढ्ढा, हा हीला वीयरायस्स।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ७६।।

पूर्व सूत्र में जो मिथ्यात्वी अर्थात् जैनमार्ग भिन्न सब मिथ्यात्वी और आप सम्यक्त्वी अर्थात् अन्य सब पापी, जैन लोग सब पुण्यात्मा, इसलिये जो कोई मिथ्यात्वी के धर्म का स्थापन करे वही पापी है।।७६।।

(समीक्षक) जैसे अन्य के स्थानों में चामुण्डा, कालिका, ज्वाला, प्रमुख के आगे पापनौमी अर्थात् दुर्गानौमी तिथि आदि सब बुरे हैं वैसे क्या तुम्हारे पजूसण आदि व्रत बुरे नहीं हैं जिन से महाकष्ट होता है? यहां वाममार्गियों की लीला का खण्डन तो ठीक है परन्तु जो शासनदेवी और मरुत्देवी आदि को मानते हैं उन का भी खण्डन करते तो अच्छा था। जो कहैं कि हमारी देवी हिसक नहीं तो इन का कहना मिथ्या है क्योंकि शासनदेवी ने एक पुरुष और दूसरे बकरे की आंखें निकाल ली थीं। पुनः वह राक्षसी और दुर्गा कालिका की सगी बहिन क्यों नहीं? और अपने पच्चखाण आदि व्रतों को अतिश्रेष्ठ और नवमी आदि को दुष्ट कहना मूढ़ता की बात है क्योंकि दूसरे के उपवासों की तो निन्दा और अपने उपवासों की स्तुति करना मूर्खता की बात है। हां! जो सत्यभाषणादि व्रत धारण करने हैं वे तो सब के लिए उत्तम हैं। जैनियों और अन्य किसी का उपवास सत्य नहीं है।

मूल- वेसाण वंदियाणय, माहण डुंबाण जरकसिरकाणं।
भत्ता भरकट्ठाणं, वियाणं जन्ति दूरेणं।। -प्रकनभान २। षष्टी० सू० ८२।।

इस का मुख्य प्रयोजन यह है कि जो वेश्या, चारण, भाटादि लोगों, ब्राह्मण, यक्ष, गणेशादिक मिथ्यादृष्टि देवी आदि देवताओं का भक्त है जो इन के मानने वाले हैं वे सब डूबने और डुबाने वाले हैं क्योंकि उन्हीं के पास वे सब वस्तुएं मांगते हैं और वीतराग पुरुषों से दूर रहते हैं।।८२।।

(समीक्षक) अन्यमार्गियों के देवताओं को झूठ कहना और अपने देवताओं को सच कहना केवल पक्षपात की बात है। और अन्य वाममार्गियों की देवी आदि का निषेध करते हैं परन्तु जो ‘श्राद्ध दिनकृत्य’ के पृष्ठ ४६ में लिखा है कि शासनदेवी ने रात्रि में भोजन करने के कारण एक पुरुष के थपेड़ा मारा उस की आंखें निकाल डालीं। उस के बदले बकरे की आंख निकाल कर उस मनुष्य के लगा दीं। इस देवी को हिसक क्यों नहीं मानते? रत्नसार भाग १। पृ० ६७ में देखो क्या लिखा है-मरुत्देवी पथिकों को पत्थर की मूर्त्ति होकर सहाय करती थी। इस को भी वैसी क्यों नहीं मानते?

मूल- कि सोपि जणणि जाओ, जाणो जणणीइ कि गओ विद्धि।
जई मिच्छरओ जाओ, गुणेसु तह मच्छरं वहइ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ८१।।

जो जैनमत विरोधी मिथ्यात्वी अर्थात् मिथ्या धर्म वाले हैं वे क्यों जन्मे? जो जन्मे तो बढ़े क्यों? अर्थात् शीघ्र ही नष्ट हो जाते तो अच्छा होता।।८१।।

(समीक्षक) देखो! इन के वीतरागभाषित दया, धर्म दूसरे मत वालों का जीवन भी नहीं चाहते। केवल इन की दया धर्म कथनमात्र है। और जो है सो क्षुद्र जीवों और पशुओं के लिये है; जैनभिन्न मनुष्यों के लिये नहीं।

मूल- सुद्धे मग्गे जाया, सुहेण गच्छत्ति सुद्ध मग्गमि।
जे पुण अमग्गजाया, मग्गे गच्छन्ति तं चुय्यं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ८३।।

सं० अर्थ-इस का मुख्य प्रयोजन यह है कि जो जैनकुल में जन्म लेकर मुक्ति को जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं परन्तु जैनभिन्न कुल में जन्मे हुए मिथ्यात्वी अन्यमार्गी मुक्ति को प्राप्त हों इस में बड़ा आश्चर्य है। इस का फलितार्थ यह है कि जैनमत वाले ही मुक्ति को जाते हैं अन्य कोई नहीं। जो जैनमत का ग्रहण नहीं करते वे नरकगामी हैं।।८३।।

(समीक्षक) क्या जैनमत में कोई दुष्ट वा नरकगामी नहीं होता? सब ही मुक्ति में जाते हैं? और अन्य कोई नहीं? क्या यह उन्मत्तपन की बात नहीं है? विना भोले मनुष्यों के ऐसी बात कौन मान सकता है?

मूल- तिच्छयराणं पूआ, संमत्त गुणाणकारिणी भणिया।
साविय मिच्छत्तयरी, जिण समये देसिया पूआ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९०।।

सं० अर्थ-एक जिन मूर्त्तियों की पूजा सार और इस से भिन्नमार्गियों की मूर्त्तिपूजा असार है। जो जिन मार्ग की आज्ञा पालता है वह तत्त्वज्ञानी जो नहीं पालता है वह तत्त्वज्ञानी नहीं।।९०।।

(समीक्षक) वाह जी! क्या कहना!! क्या तुम्हारी मूर्त्ति पाषाणादि जड़ पदार्थों की नहीं जैसी कि वैष्णवादिकों की हैं? जैसी तुम्हारी मूर्त्तिपूजा मिथ्या है वैसी ही मूर्त्तिपूजा वैष्णवादिकों की भी मिथ्या है। जो तुम तत्त्वज्ञानी बनते हो और अन्यों को अतत्त्वज्ञानी बनाते हो इससे विदित होता है कि तुम्हारे मत में तत्त्वज्ञान नहीं है।

मूल- जिन आणाए धम्मो, आणा रहिआण फुड अहमुत्ति।
इय मुणि ऊणय तत्तं, जिण आणा कुणहु धम्मं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९२।।

संनअर्थ-जो जिनदेव की आज्ञा दया क्षमादि रूप धर्म है उस से अन्य सब आज्ञा अधर्म हैं।।९२।।

(समीक्षक) यह कितने बडे़ अन्याय की बात है। क्या जैनमत से भिन्न कोई

भी पुरुष सत्यवादी धर्मात्मा नहीं है? क्या उस धार्मिक जन को न मानना चाहिये। हां! जो जैनमतस्थ मनुष्यों के मुख जिह्वा चमड़े की न होती और अन्य की चमडे़ की होती तो यह बात घट सकती थी। इस से अपने ही मत के ग्रन्थ वचन साधु आदि की ऐसी बड़ाई की है कि जानो भाटों के बड़े भाई ही जैन लोग बन रहे हैं।

मूल- वन्नेमि नारयाउवि, जेसि दुरकाइ सम्भरं ताणम्।
भव्वाण जणइ हरि हरं, रिद्धि समिद्धीवि उद्घोसं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० ९५।।

सं० अर्थन-इस का मुख्य तात्पर्य यह है कि जो हरिहरादि देवों की विभूति है वह नरक का हेतु है। उस को देखके जैनियों के रोमाञ्च खड़े हो जाते हैं। जैसे राजाज्ञा भंग करने से मनुष्य मरण तक दुःख पाता है वैसे जिनेन्द्र आज्ञा भंग से क्यों न जन्म मरण दुःख पावेगा? ।।९५।।

(समीक्षक) देखिये! जैनियों के आचार्य्य आदि की मानसी वृत्ति अर्थात् ऊपर के कपट और ढोंग की लीला। अब तो इन के भीतर की भी खुल गई। हरिहरादि और उन के उपासकों के ऐश्वर्य और बढ़ती को देख भी नहीं सकते। उन के रोमाञ्च इसलिये खड़े होते हैं कि दूसरे की बढ़ती क्यों हुई? बहुधा वैसे चाहते होंगे कि इन का सब ऐश्वर्य हम को मिल जाय और ये दरिद्र हो जायें तो अच्छा। और राजाज्ञा का दृष्टान्त इसलिये देते हैं कि ये जैन लोग राज्य के बड़े खुशामदी झूठे और डरपुकने हैं। क्या झूठी बात भी राजा की मान लेनी चाहिये? जो ईर्ष्या-द्वेषी हो तो जैनियों से बढ़ के दूसरा कोई भी न होगा।

मूल- जो देई सुद्ध धम्मं, सो परमप्पा जयम्मि न हु अन्नो ।
कि कप्पद्दुम्म सरिसो, इयर तरू होई कइयावि।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०१।।

संनअर्थ-वे मूर्ख लोग हैं जो जैनधर्म से विरुद्ध हैं। और जो जिनेन्द्रभाषित धर्मोपदेष्टा साधु वा गृहस्थ अथवा ग्रन्थकर्त्ता हैं वे तीर्थंकरों के तुल्य हैं। उन के तुल्य कोई भी नहीं।।१०१।।

(समीक्षक) क्यों न हो! जो जैनी लोग छोकरबुद्धि न होते तो ऐसी बातें क्यों मान बैठते? जैसे वेश्या विना अपने के दूसरी की स्तुति नहीं करती वैसे ही यह बात भी दीखती है।

मूलं- जे अमुणि य गुण दोषा ते कहअ दुहाण हुंति त मझच्छा ।
अह ते विहु मझच्छा ता विस अमिआण तुल्लत्तं ।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०३।।

संनअर्थ-जिनेन्द्र देव तदुक्त सिद्धान्त और जिनमत के उपदेष्टाओं का त्याग करना जैनियों को उचित नहीं है।।१०३।।

(समीक्षक) यह जैनियों का हठ, पक्षपात और अविद्या का फल नहीं तो क्या है? किन्तु जैनियों की थोड़ी सी बात छोड़ के अन्य सब त्यक्तव्य हैं। जिस की कुछ थोड़ी सी भी बुद्धि होगी वह जैनियों के देव, सिद्धान्तग्रन्थ और उपदेष्टाओं को देखे, सुने, विचारे तो उसी समय निःसन्देह छोड़ देगा।

मूल- वयणे वि सुगुरु जिणवल्लहस्स केसि न उल्लसइ सम्मं।
अह कह दिणमणि तेयं, उलुआणं हरइ अन्धत्तं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०८।।

संनअर्थ-जो जिनवचन के अनुकूल चलते हैं वे पूजनीय और जो विरुद्ध चलते हैं वे अपूज्य हैं। जैन गुरुओं को मानना अर्थात् अन्यमार्गियों को न मानना।।१०८।।

(समीक्षक) भला जो जैन लोग अन्य अज्ञानियों को पशुवत् चेले करके न बांधते तो उन के जाल में से छूट कर अपनी मुक्ति के साधन कर जन्म सफल कर लेते। भला जो कोई तुम को कुमार्गी, कुगुरु, मिथ्यात्वी और कूपदेष्टा कहैं तो तुम को कितना दुःख लगे? वैसे ही जो तुम दूसरे को दुःखदायक हो इसीलिये तुम्हारे मत में असार बातें बहुत सी भरी हैं।

मूल- तिहुअण जणं मरंतं, दट्ठूण निअन्ति जे न अप्पाणं ।
विरमंति न पावाउ, विद्धी धिट्ठत्तणं ताणं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १०९।।

संनअर्थ-जो मृत्युपर्यन्त दुःख हो तो भी कृषि व्यापारादि कर्म जैनी लोग न करें क्योंकि ये कर्म नरक में ले जाने वाले हैं।।१०९।।

(समीक्षक) अब कोई जैनियों से पूछे कि तुम व्यापारादि कर्म क्यों करते हो? इन कर्मों को क्यों नहीं छोड़ देते? और जो छोड़ देओ तो तुम्हारे शरीर का पालन, पोषण भी न हो सके और जो तुम्हारे कहने से सब लोग छोड़ दें तो तुम क्या वस्तु खाके जीओगे? ऐसा अत्याचार का उपदेश करना सर्वथा व्यर्थ है। क्या करें विचारे। विद्या, सत्संग के विना जो मन में आया सो बक दिया।

मूल- तइया हमाण अहमा, कारणरहिया अनाणगव्वेण ।
जे जंपन्ति उस्सुत्तं, तेसि, दिद्धिच्छ पंडिच्चं।। -प्रकन भा० २। षष्टी० सू० १२१।।

संनअर्थन-जो जैनागम से विरुद्ध शास्त्रें को मानने वाले हैं वे अधमाधम हैं। चाहें कोई प्रयोजन भी सिद्ध होता हो तो भी जैन मत से विरुद्ध न बोले; न माने। चाहें कोई प्रयोजन सिद्ध होता है तो भी अन्य मत का त्याग कर दे।।१२१।।

(समीक्षक) तुम्हारे मूलपुरुषों से ले के आज तक जितने हो गये और होंगे उन्होंने विना दूसरे मत को गालिप्रदान के अन्य कुछ भी दूसरी बात न की और न करेंगे। भला! जहां-जहां जैनी लोग अपना प्रयोजन सिद्ध होता देखते हैं वहां चेलों के भी चेले बन जाते हैं तो ऐसी मिथ्या लम्बी चौड़ी बातों के हांकने में तनिक भी लज्जा नहीं आती यह बडे़ शोक की बात है।

मूल- जं वीरजिणस्स जिओ, मिरई उस्सुत्त लेस देसणओ ।
सागर कोडाकोडि हिडइ अइभीमभवरण्णे।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२२।।

संनअर्थ-जो कोई ऐसा कहे कि जैन साधुओं में धर्म है; हमारे और अन्य में भी धर्म है तो वह मनुष्य क्रोड़ान क्रोड़ वर्ष तक नरक में रह कर फिर भी नीच जन्म पाता है।।१२२।।

(समीक्षक) वाह रे! वाह!! विद्या के शत्रुओ! तुम ने यही विचारा होगा कि हमारे मिथ्या वचनों को कोई खण्डन न करे इसीलिये यह भयंकर वचन लिखा है सो असम्भव है। अब कहां तक तुम को समझावें। तुम ने तो झूठ निन्दा और अन्य मतों से वैर विरोध करने पर ही कटिबद्ध हो कर अपना प्रयोजन सिद्ध करना मोहनभोग के समान समझ लिया है।

मूल- दूरे करणं दूरम्मि साहणं तह पभावणा दूरे।
जिण धम्म सद्दहाणं पि तिरकदुरकाइ निट्ठवइ।। -प्रकनभान २। षष्टी०सू० १२७।।

संनअर्थ- जिस मनुष्य से जैन धर्म का कुछ भी अनुष्ठान न हो सके तो भी जो ‘जैन धर्म सच्चा है अन्य कोई नहीं’ इतनी श्रद्धामात्र ही से दुःखों से तर जाता है।।१२७।।

(समीक्षक) भला! इस से अधिक मूर्खों को अपने मतजाल में फंसाने की दूसरी कौन सी बात होगी? क्योंकि कुछ कर्म करना न पड़े और मुक्ति हो ही जाय ऐसा भूंदू मत कौन सा होगा?

मूल- कइया होही दिवसो, जइया सुगुरूण पायमूलम्मि।

 

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In other places like Chamunda, Kalika, Jwala, Papanoumi i.e. Durganomi Tithi etc. in front of the chief are all bad, are your fasting etc. not bad, due to which Mahakashta is done? It is fine to refute the Leela of the left-wing here, but it was good to refute those who believe in the rule of God and Marutidevi etc. Which is to say that if our goddess Hisak is not, then it is false to say that because Rajadevi had taken out the eyes of a man and another goat.

 

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